दिल्ली में केजरीवाल के मुकाबले का पब्लिक लीडर बीजेपी के पास है नहीं, बीजेपी मोदी के नाम के भरोसे!

जन सरोकार ब्यूरो/आरके सेठी
नई दिल्ली, 30 जनवरी। खुद को ‘दिल्ली का बेटा’ बता कर तीसरी बार दिल्ली की सत्ता पर आंख गढ़ाए बैठे अरविंद केजरीवाल को लाख कोशिशों के बावजूद बीजेपी अपने ‘चक्रव्यूह’ में फंसा नहीं पा रही है। मालूम केजरीवाल को भी है कि उनकी एक चूक उनका दिल्ली पर फिर से राज करने का सपना चकनाचूर कर सकती है, इसलिए अब तक वह सधे अंदाज में ही चल रहे हैं। एक के बाद एक मुद्दे पर बीजेपी हमलावर रही और केजरीवाल को घेरने की कोशिशों में कोई कसर भी नहीं छोड़ी लेकिन अरविंद केजरीवाल ‘अभिमन्यु’ बनने को तैयार ही नहीं होते।
दिल्ली के चुनाव की सरगर्मियां हर रोज बढ़ रही हैं। तीेखे होते बोल कब जहरीले होते जा रहे हैं, इस बात से किसी भी पार्टी के किसी भी लीडर को कोई परवाह होती दिख नहीं रही। वादों और दावों के खेल में ना तो बीजेपी पीछे रही है, ना आम आदमी पार्टी और ना ही कांग्रेस। बीजेपी ने ‘आप’ को बदहाल सफाई व्यवस्था, टूटी सडक़ों और यमुना पर घेरा तो केजरीवाल ने अपनी गलती मान ली और कहा कि इन तीनों मुद्दों पर काम ना कर पाना उनकी कमजारी रही और इस बार वह यह तीनों काम कर देंगे। इसके बाद, पंजाबियों की बेइज्जती के मुद्दे पर घेरा तो मसला ज्यादा चला नहीं, अब यमुना का मुद्दा ‘उफान’ पर है। लेकिन इसमें भी केजरीवाल ने ना केवल हरियाणा की मुख्यमंत्री को ‘फंसा’ लिया बल्कि चुनाव आयोग पर भी हमलावर हो गए हैं। यानी, वह पीछे हटने को तैयार नहीं। जाहिर है, इन मुद्दों पर बीजेपी भी इससे आगे ज्यादा जा नहीं पाएगी।
किंतु, दिल्ली में कांग्रेस और बीजेपी की अपनी-अपनी कुछ मजबूरियां हैं। कांग्रेस के पास कद्दावर लीडर तो हैं लेकिन अब वह इतने ‘कारगर’ नहीं रहे कि पब्लिक मीटिंग में लोग उन्हें सुनने को बेताब हों या उनके कहे से वोट डाल दें। कांग्रेस की टॉप लीडरशिप की बात करें तो अभी तक अकेले राहुल गांधी ही मोर्चा संभाले हुए हैं, वह भी उन्होंने तब संभाला जब बीजेपी और आम आदमी पार्टी अपना ‘दो तिहाई’ काम पूरा कर चुकी है। राहुल गांधी की जनसभाओं में भीड़ भले ही ठीकठाक पहुंच रही हो, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस उस भीड़ को वोट के रूप में बदल पाए, यह हुनर फिलहाल उसके पास नहीं दिख रहा। 2015 और 2020 के चुनाव की तरह कांग्रेस जीरो पर ही ना रह जाए, कांग्रेस की कोशिशें बस इतनी ही दिख रही हैं।
वहीं, अगर बात करें बीजेपी की तो उसके बाद दिल्ली में एक भी ऐसा लोकल लीडर नहीं है, जिसका कद अरविंद केजरीवाल के मुकाबले का हो। दिल्ली बीजेपी चीफ वीरेंद्र सचदेवा पब्लिक लीडर नहीं हैं। व्यापारी तबके से आते हैं तो व्यापारियों में उनकी पैठ ठीक है किंतु सचदेवा का भाषण सुनकर दिल्ली की जनता अपना मन बदल लेती हो, ऐसा भी नहीं है। वीरेंद्र सचदेवा मूलरूप से संगठन के व्यक्ति हैं और सांगठनिक क्षमताएं के चलते वह बीजेची चीफ की कुर्सी तक पहुंचे हैं। उनके अलावा मनीष तिवारी और प्रवेश वर्मा के बाद आज की तारीख में मुखर आवाज किसी की नहीं सुन रही। कद्दावर लोकल लीडर ना होना, बीजेपी के लिए एक बड़ी कमजोरी के रूप में सामने आ रहा है। बीजेपी को पीएम मोदी और अमित शाह के ‘जादू’ पर ही भरोसा है। बीजेपी की टॉप लीडरशिप को भी यह मालूम है कि दिल्ली के स्थानीय नेताओं के भरोसे चुनाव जीतने की सोच बेमानी होगी। इसलिए, बीजेपी ने केंद्रीय मंत्रियों से लेकर, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और बड़े बीजेपी लीडरों की डयूटी दिल्ली चुनाव में लगा रखी है।
अब रही बात, आम आदमी पार्टी की तो उसके पास मुखिया के रूप में अरविंद केजरीवाल लोकप्रिय चेहरा तो हैं ही, साथ ही मुखर होने के लिए संजय सिंह और पब्लिक तक सीधी बात पहुंचाने के लिए मनीष सिसोदिया, आतिशी व राघव चड्ढा सहित कई नाम हैं, जो उसके लिए कारगर हैं। सत्ता में रहने की वजह से दिल्ली का मेन स्ट्रीम मीडिया जितना केजरीवाल की पार्टी पर फोकस करता है, उतना ही बीजेपी का भी ‘ध्यान’ रख रहा है। कांग्रेस के खाते में सिर्फ ‘ऑब्लिकेशन’ है। या यह कहें कि कांग्रेस चाह भी नहीं रही है कि वह मीडिया के केंद्र में आए। वजह कुछ भी हो, दिल्ली पर 15 साल राज करने वाली कांग्रेस की यह ‘चुप्पी’ दिल्ली को अखर जरूर रही है।